प्रेम करती है स्त्री, तो खुद को समर्पित करती है
भूल कर अपने अस्तित्व को, उसे ग्रहण करती है
नाम और पहचान के कई दायरों में बंध जाती है
मुस्कुरा कर हर बंधन को वो सर माथे लगाती है
जन्म से ही कुछ भाव लहू में वो साथ लाती है
पुरुष पर हर रिश्ते में वो स्नेह ही तो लुटाती है
माता, बहन, पत्नी, प्रेयसी या फिर हो वो मित्र
उसकी हर तकलीफ में एक छाँव सी बनती है
अफसोस का एक क्षण तब सामने आता है
जब वक़्त के साथ खुद को वो उपेक्षित पाती है
पिता, भाई, पति, सहयोगी, मित्र हो या पुत्र
मर्यादा की बेड़ियों में सदा ही जकड़ी जाती है
जिसके बिना जीवन अधूरा लगता था उनको
उसी पुरुष की अवहेलना का तो शिकार होती है
सृजन की शक्ति, पोषण की ताक़त, रखने वाली
एक नन्ही ठेस से भी टुकड़ों में बिखर जाती है,,
नमन है उस नारी शक्ति को उस प्रेम की बहती हुई गंगा की धारा को जहां हर दुख सुख पाप और पुण्य के लिए एक समान वह धारा बनकर बह जाती है🙏🙏
रुद्र..... ....।।
-किरन झा मिश्री