एक शाम मैं जहां ठहर गया।
ऐसा लग रहा था सारा जहां ठहर गया।
मस्त मदहोश और मादक उन्माद लिए
जा रही थी कामिनी वो मन को एक विराम दिए।
सभी थकान से भरे थे पैर,नैनो में एक क्षण आराम लिए।
जो देखा मैने एक पल के लिए
बिखेरा रंग था किसीने, लालिमा का आसमान में।
कही नीला कही था लाल कही थोड़ा श्यामल।
एक दफा को याद आ गया वो आने वाला कल।
कई कहानियां जो स्वयं से बात करने लगी।
बिना पिए ही एक नशे सी सबको चढ़ने लगी।
कोई आशिक कोई महबूब कोई आवारा
गुलाबी शाम ने मुख पर कुछ ऐसा जादू धारा
बिखरे पंक्षियो का एक साथ सिमट के घर की ओर जाना
सरकती गाड़ियों में बैठकर जाता जमाना।
खिसकर ताल में गिरता हुआ सूरज देखा।
दुपककर कंखियो से देखता जाते हुए को
ऐसा कोई चांद खूबसूरत देखा।
दिखा जो कोई बहुत खास नही था फिर भी।
उसीकी ओर मेरा मन खिंचता चला गया।
वो महज दीवानगी ही होगी और क्या।
महज एक दौर है आया है चला जायेगा।
कौन कहा क्या कैसा वक्त ही बताएगा।
ये तो एक शाम दीवानी सी राह में मिल गई।
नही तो हम तो मुसाफिर है
जहां बैठे वही महफिल जम गई।
आनंद त्रिपाठी।
लेखक।