"मैं पुकार रही हूँ"
जिन लोगों को मेरी परवाह है, उनकी कोई सुनता नहीं,
हुज़ूम उतरता है लोगों का फिर भी फर्क पड़ता नहीं,
इंसानी जान सस्ती हो गई है. अहंकार के आगे,
शहर उजाड़ देता है इंसान मगर थमता नहीं,
प्रथ्वी पुकार रही है पर कोई सुनता नहीं.......................
मुझ पर गर्व करने वाले, अब तबाही मचा रहे है,
इतराते थे जिसकी खूबसूरती पर अब उस पर दाग लगा रहे है,
इमारतें खण्डहर हो रही है फिर भी मन नहीं भरता,
दिन और रात मेरे आसमान से गायब हो चुके है,
फिर भी उनका रूकने को जी नहीं करता,
मैं प्रथ्वी उनके प्रहार से आहत हो रही हूँ,
कुछ तो रहम करों मैं तुम्हारी ही जन्मस्थली हूँ..........................
रोते - बिलखते लोग किसी को नहीं दिखते,
दहल जाती हूँ मैं जब उनके जिस्म मेरे ऊपर है गिरते,
चीख - चिल्लाहट किसी के कानों तक नहीं पहुँचती,
फिर कहते हो इंसानियत से दुनिया खाली हो गई,
मैं प्रथ्वी कैसे समेट लूँ इतने आँसू अपने दामन में,
कोई तरकीब तो बताए जिससे मैं भर लूँ सभी तकलीफें अपनी बाहों में..........................
सब कहते है मौसम का मिजाज़ बदल रहा है,
पहले जैसा कुछ नहीं,
सब नया लग रहा है,
पूछों ज़रा इनसे क्या ऐ बदलाव सिर्फ मेरे कारण है,
क्या दिखाई नहीं देता इसकी वजह सिर्फ प्रक्रति ही नहीं,
बल्की इंसानों द्वारा निर्मित गोला - बारूद है,
मैं प्रथ्वी आहत हूँ, स्त्रब्ध हूँ....................................