चांदनी रात भी अब बदन जलाने लगती है
चुपके से रात में छत पे जब अकेले होते हैं
तेरा खत खोल कर बार बार हम पढ़ते हैं
आँखों से आंसू के कतरे जब लफ्जों पे गिरते हैं
तेरे दिए ज़ख्म धुलने की जगह फिर हरे हो जाते हैं
पर हम चाह कर भी अपनी खता न जान पाते हैं
काश एक बार तो हमारी खता बता जाते
फिर हम भी चैन की नींद सो पाते