खीर (लघुकथा)
देवीप्रसाद की उम्र पचहत्तर साल के आसपास थी।उस उम्र में कुछ न कुछ खाने की इच्छा जाग उठती परन्तु कभी न साथ देने वाली चिड़चिड़े स्वभाव की उनकी पत्नी मानवी जिसे अपनी महिला मंडली से सारे दिन फुर्सत नहीं मिलती थी वह मास्टरजी को अक्सर टोक दिया करती। नववधुओं का वृद्धजनों से कोई मोह नहीं था। उनके पुत्र अपने अपने काम में व्यस्त थे। एक दिन उसकी सखी रचु ने खीर खाने की मांग की। मानवी अपने पति को तिरछी निगाहों से देखते हुए खीर बनाने लगी। घर में सभी महिला मंडली आमन्त्रित हुई । उन्होने स्वादिष्ट पकवान को सराहा। उनके जाने के बाद थोड़ी खीर बच चुकी थी, मानवी बची हुई खीर अपने पति को दे कर आ गयी। मास्टरजी ने ईश्वर का धन्यवाद करते हुए खीर को चख कर छोड़ दिया क्योंकि गला दुःख के भावों से भर गया, वे खीर खा ही नहीं पाए। अपनी पत्नी के कुंठित स्वाभाव से जीवन भर की सामाजिक पीड़ा का अनुभव करते हुए अखबार पढ़ने लगे।
-हेतराम भार्गव हिन्दी जुड़वाँ