“ गैब के बाग की खुशबू का निशा देता है
रात के पिछले पहर पेड़ अजां देता है
उसके नजदीक कहीं मर ना गया हुं मै भी
आजकल शहर मेरे हक मे बयां देता है
ऐसी नेमत पे भी करते है खुदा का शिकवा
क्या ये कम है के हम ऐसो को वो माँ देता है
दी है वैहशत तो ये वैशहत ही मुसलसल हो जाये
रक्स करते हुये एतराफ मे जंगल हो जाये
चलता रहने दो मियां सिलसिला दिलदारी का
आशिकी दीन नही है के मुकम्म्ल हो जाये
हालत-ए-हिज्र में जो रक्स नही कर सकता
उसके हक मे यही बेहतर है के पागल हो जाये
डूबती नाव मे सब चीख रहे है ‘ताबिश’
और मुझे फिक्र गज़ल मेरी मुकम्मल हो जाये “
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