विश्वास की परख शब्दों से नही ,
हृदय की अतः परत है जहाँ से प्रेम ,
बुद्धि को ठेंगा दिखाता उसके शिख
सदृश पहाड़ों से ऊपर ,
निकल हृदय को ढक , नेत्रो से बरबस ,
प्रकट हो जाता है | नही देखता , संसार ,
नही देखता स्थिति , परिस्थिति
प्राणो के साथ घुला हुआ बाहर
आने को आतुर ,
फिर भी साँसो को थामे रहता है |
अगर यह प्रेम नही तो प्रेम की
परिभाषा क्या है?
अगर यहाँ विश्वास नही तो ,
विश्वास की परिभाषा क्या है?