देर हो चली
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जब तक मैंने जाना जीवन तब तक मैं जीवन खो बैठी
जब तक मैंने जाना अर्पण जब तक मैं दर्पण खो बैठी---
खेल-खिलौनों की चाहत में बैठे थे नन्हे-मुन्ने दिन
जब तक वो सब पहुँचें मुझ तक तब तक मैं बचपन खो बैठी --
उजियारों को छूने की ज़िद मन में छिप कर ही बैठी थी
जब तक मैं उन तक जा पहुंची तब तक मैं संयम खो बैठी ---
भर सुगंध इठलाता रहता मेरे मन का आँगन दिन भर
जब तक मन-आँगन पहुंची थी तब तक मैं प्रांगण खो बैठी ---
अंधियारों से लड़कर मैंने उजियारों को जीकर पाया
जब तक उजियारे छूए थे तब तक मैं धड़कन खो बैठी ---
भरी प्रेम की गागर मैंने छलक न जाए मैं डरती थी
गागर तो सम्भली न मेरी मैं खुद ही अड़चन बन बैठी ---
सात सुरों से प्यार किया था ,दिल ने मंगलचार किया था
जब मैं सुर को लगी साधने तब तब मैं नंदनवन खो बैठी----
डॉ. प्रणव भारती