*पनघट, कुआँ, जेठ, ताल, पंछी*
1 पनघट
पनघट बिछुड़े गाँव से, टूटा घर संवाद।
सुख-दुख की टूटी कड़ी, घर-घर में अवसाद।।
2 कुआँ
कुआँ नहीं अब शहर में, ट्यूबबैल हैं गाँव।
पीने को पानी नहीं, दिखती कहीं न छाँव।।
3 जेठ
जेठ दुपहरी की तपन, दिन हो चाहे रात।
उमस बढ़ाती जा रही, पहुँचाती आघात।।
4 ताल
ताल सभी बेहाल अब, नदी गई है सूख।
तरुवर झरकर ठूँठ हैं, नहीं रहे वे रूख।।
पंछी
प्रकृति हुई अब बावली, बदला है परिवेश।
पंछी का कलरव नहीं, चले गए परदेश।।
मनोज कुमार शुक्ल " मनोज "
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