शीर्षक: बेख्याल जिंदगी
बेख्याल सी जिंदगी अब सितम ढा रही है
नाजुक सी साँसों पर कहर बरसा रही है ।।
कह रही तमाम उम्र वो मेरे रहम पर रही है
कब परवाह की मैने, वो किस तरह रही है ?
चिंतन की जगह उसे चिंता से ही नहला रहा हूँ
मोह की तपिश में उसे फिक्र से ही जला रहा हूँ ।।
अगर रोक लेता असंयमित हुए बढ़ते कदमों को
भूल जाता बंधे हुए बंधनो की निभाते हुए रस्मों को ।।
जीना था खुद का था, गेरो के लिए तो बहाना था
राहे भी जुदा थी, तमाम उम्र का रोना तो अपना था ।।
फलसफा अस्तित्व का तो मुझे ही समझना था
पैबंद लगा हुआ ये अफसाना अब किसे सुनाना था ?
✍️ कमल भंसाली