"विरह"
श्री राम दिल से दु:खी हैं,
हृदय से शोकाकुल है,
मन से उदास हैं,
चित से चिंतित हैं,
जानकी के विरह में
श्री राम है शोकाकुल ।
बन बन फिरते हैं,
डाल डाल को देखते हैं,
सरवर को खोजते हैं,
पंछी को पूछते हैं,
हिरन को टटोलते हैं,
मेरी मृगनयनी को
किसी ने देखा है ?
जानकी के विरह में
श्री राम है शोकाकुल ।
मर्यादा पुरुषोत्तम ये
सोचते हैं कि मेरी
जनकनंदिनी कहां,
होगी ,किस हाल में
होगी ? कैसे मेरे
बिना जी रही होगी?
उसने कभी अकेले,
धरती पर पांव नहीं
धरे है,वो कपोत जैसी भोली,
हिरनी जैसी चंचल,
नदी जैसी कलकल,
गंगा जैसी पावन,
चंदन जैसी शीतल,
जानकी के विरह में
श्री राम है शोकाकुल ।
डॉ दमयंती भट्ट।
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