यह संपूर्ण धरा
अनंत मुझमें ही
क्षण क्षण बहती
जल प्रवाह लेकर ,
नदी, सागर ढूंढ़ती
स्वयं यर्था शक्ति से
अस्तित्व पा लेती ।
मैं प्रकृति से विलग कैसे
रक्त-मज्जा-अस्थि से बनीं
यह काया क्षण-भंगुर है
कालचक्र में समाप्त होगी
कण-कण में विस्तृत होगी ।
शीघ्र अंकुर प्रस्फुटित होगा
पेड़-पौधे-जड़ें सजीवन होगें
हवा-पानी-मिट्टी-कंकर में
वृद्धि प्रक्रिया ऊर्जावान से
पुनरूत्थान क्रिया से जुड़ेंगी ।
सप्तचक्रों से बना ये जीवन
मुक्त है, बंधा है, समाप्त है
शाश्वत है, नश्वर है, यथार्थ है
परिवर्तन प्रभाव में आकर ,
सृष्टि-ब्रम्हांड में पूर्ण समाहित ।।
-© शेखर खराड़ी
तिथि-३१/१/२०२२, जनवरी