हो गई....
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अश्क़ की दो बूँद लेकरमैं चली पिय को रिझाने
किंतु मेरी राह धुँधली हो गई...
और अब किस ओर जाऊँ मैं बता नाविक मुझे तू
नाव मेरी है ये जर्जरऔर पुरानी हो गई.....
तूने मुझको नाव सौंपी थी नया ऋंगार करके
दी थीं पतवारें भी हाथों में बहुत मनुहार करके
मैं उतरकर नाव से डूबी नदी में जब स्वयं ही
तब भी तूने भरम तोड़ा इस हृदय में स्नेह भरके
हाथ मेरा थाम तूने नाव में फिर से चढ़ाया
स्नेह आशीषों को पाकर मैं रुहानी हो गई.....
श्वाँस में कुछ हलचलें हैं कुछ दिवानी बलबलें हैं
दिल भरा है स्मृतियों से कुछ झरोखे मनचले हैं
झाँकते हैं छुपछुपाकर स्वयं से आँखें चुराकर
किंतु जब तूने दुआ दी मैं सुहानी हो गई.....
जागती आँखों के सपने रात भर चिपटे रहे थे
जो बिखर कर भी बने थे साँस में लिपटे रहे थे
मूँद कोरों को जो छूआ एक सपना और बोया
जाने किस कोने से महकी रातरानी हो गई.....
डॉ.प्रणव भारती