पूस
पूस मास की ठंड यह, काँपे सबके हाड़।
सूरज की जब तपन हो, भागे तब ही जाड़।।
ठंड
जाड़े मे ओले गिरें, बढ़ती जाती ठंड।
परछी में बैठा हुआ, भोग रहा है दंड।।
ऊन
ऊन लिए हैं हाथ में, रखी सिलाई पास।
माँ की ममता ने बुने, स्वेटर कुछ हैं खास।।
धूप
वर्षा ऋतु का आगमन, जंगल नाचे मोर।
देख धूप है झाँकती, मन भावन चित चोर।
आँगन
आँगन में बैठे सभी, जला अंगीठी ताप।
दुख दर्दों को बाँटते, दिल को लेते नाप।।
मनोज कुमार शुक्ल " मनोज "
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