चीखती है कोख़ मां की बेटे की लताड़ से
ढह जाते हैं सारे किले चाहे बने हों पहाड़ से।
शर्म से झुक जाता है सर एक गुरु का, जब
चयन शब्दों का करता है शिष्य, तिहाड़ से।
चरण स्पर्श करवाती है सभय्ता अनजान से
असभ्य भी आते हैं किसी न किसी कबाड़ से।
हो सकता है कि अपनी सल्तनत पर गुमान हो
पर राई स है व्यक्तित्व,भले लगते हों पहाड़ से।
-रामानुज दरिया