कब निकली उम्र मेरी, पता ही नहीं चला,
कंधे पर चढ़ते बच्चे कब,
कंधे तक आ गए, पता ही नहीं चला,
एक कमरे से शुरू मेरा सफर कब ,
बंगले तक आया, पता ही नहीं चला,
साइकल के पैडल मारते हांफते ते जब,
स्कूटर,कारों में लगे फिरने कब, पता ही नहीं चला,
हरे भरे पेड़ों से भरे जंगल थे तब,
कब हुए कंक्रीट के, पता ही नहीं चला,
कभी थे जिम्मेदारी माँ बाप की हम,
कब बच्चों के लिए हुए जिम्मेदार, पता ही नहीं चला,
एक दौर था जब दिन को भी बेखबर सो जाते थे,
कब रातों की उड़ गयी नींद, पता ही नहीं चला,
बनेगे माँ बाप सोचकर कटता नहीं था वक़्त,
कब बच्चो के बच्चे हो गए, पता ही नहीं चला,