COPY....
अज्ञात: क्या आपने कभी प्यार किया है..?
फकीर: हा बिल्कुल किया है.
अज्ञात: नतीज़ा क्या निकला..?
फकीर: एक ही नतीज़ा, इश्क ने मुजे एक मरहले (ठिकाना) से दूसरे मरहले तक पहुंचा दिया.
अज्ञात: दूसरा मरहला मतलब..?
फकीर: हा, दूसरा मरहला जहा यार का हिज्र और मिसाल दोंनो ही लुफ्त देते है. जानते हो इश्क कि तकमीली कब होती है..?
अज्ञात: कब होती है..?
फकीर: जब महबूब सै इक तरफ़ा मोहब्बत हर हद पार करले, सौदेबाज़ी खत्म हो जाए तब, मोहब्बत के बदले में मोहब्बत मांगने से बड़ी सौदेबाज़ी और क्या होगी..?
जब आशिक सौदागरी और मजबूरी के दायरे से निकल कर इश्क करता है, तो इश्क आशिक को सलामी देने आती है.
माशूक़ तुम्हे चाहे या ना चाहे पर तुम्हारे इश्क मे रत्तीभर भी कमी ना आए, बस तभी इश्क की मरज़ (ख्वाहिश) हासिल होती है, तभी सही मायने मे आशिक आजाद होता है.
और याद रखना इश्क मे आजादी के साथ इश्क करने से बड़ी और कोई आजादी नही. आशिक से बड़ा आजाद और कौन होगा..?
इश्क कभी कहाँ नाकाम होता है..? इश्क तो कमबख्त इश्क होता है..।
इश्क मे महबूब मिल जाए तो अच्छी बात है और न मिले तो इश्क कि कसक, इश्क का दर्द, या इश्क के दाग तो मिल ही जाते है.
इश्क मे कभी कोई कुछ नही खोता कुछ न कुछ जरूर पाता है.
"महबूब का वस्ल ही ना सही हिज्र ही सही"