शीर्षक : कहाँ रह गये हम ?
कहाँ रह गये हम ? बता मेरे हमदम
सोचने के दायरे, कितने हो रहे, कम
जज्बात उभरते, पर हम ही उनसे डरते
एक सांस के लिए, हम, हजारों बार मरते
फिक्र कल की, कितनी हो रही है ? भारी
भूल जाते आज को, बने रहते, हम भिखारी
दौड़ बड़ी सीमित, हार को ही जीत बता इठलाते
प्रयासों से करके बेवफाई, एक जगह, बैठ जाते
कहाँ रह गये हम ? सवाल बड़ा अजीब लगता
अपनों के दायरे में, जब गैरों से सहारा मिलता
✍️ कमल भंसाली