दुनिया में कई प्रकार के सम्बन्ध और उनसे जुडी अपेक्षाएं होती हैं। इसका कोई तय फार्मूला नहीं है। जिससे हमें ख़ुशी मिले , हो सकता है किसी दूसरे को वही काम सही न लगे। तो अपने रिश्तों को इसी तरह मैनेज करें कि उनमे एक बैलेंस हो।
सबसे पहले तो हमें यह जानना जरूरी है कि रिश्ता क्या है?
यदि आप रिश्ता की कोई परिभाषा चाहते हैं तो इसको स्वयं नंद स्वरूप श्री कृष्ण जी भी इसे परिभाषित नही कर पाये।
रिश्ता बस एक एहसास है।
यदि कोशिश की भी जाए तो शायद कोई ऐसी परिभाषा नहीं लिखी जा सकती जो रिश्तों को गहराई से परिभाषित कर सके।
बात ये नही की रिश्ता को परिभाषित नही किया जा सकता या ये कोई बहुत जटिल शब्द या विषय है, बल्कि सच तो यह है कि रिश्ता जीवन की सफलता का एक बड़ा मानक है, जिसे कुछ शब्दों में अभिव्यक्त नहीं किया जा सकता।
रिश्ता एक विश्वास के डोर पर टिका होता है ,
कहा गया है ,
टूटे से फिर न जुड़े ओर जुड़े गांठ पड़ जाए।
यानी , कोई व्यक्ति सफल होता है तो अपने माता पिता और गुरु जनों को धन्यवाद प्रस्तुत करता है , जबकि ये कोई जरूरी नही है , माँ ने आपको जन्म दिया आप उन्हें छोड़ के चल जाओ क्या होगा कुछ भी नही पर आप नही जाते , क्यों ? क्योंकि ये आपका लगाव और प्यार है और यही भावनाएं तो रिश्ता कहलाती है ।
रिश्ता कोई जरूरी नही पारिवारिक या खून का हो ये कुछ भी हो सकता है,
क्या इनके भी प्रकार होते हैं अगर है तो चलो आज ढूंढते हैं
1)वचनबद्ध रिश्ता
प्रेमी प्रेमिका
2)बिना बंधन का रिश्ता
मित्र
3)विवाह सम्बन्ध
पति पत्नी
4) सामाजिक रिश्ता
परिचित व्यक्ति
5) खून का रिश्ता
मां बाप भाई बहन आदि
जीवन के हर परिवेश में एक दूसरे के लिए पूरा और अटूट विश्वास। कुछ लोगों के अनुसार यही रिश्ते गम्भीर होते हैं।
रिश्तो को हक नहीं उपहार समझे यह रिश्ते किसी को भी आसानी से नहीं मिलते इन्हें अपनी उपहारों की तरह हमें संभाल कर रखना चाहिए,
जिन रिश्तो में हक ना जताने का रिवाज हो उन्हीं में शक की गुंजाइश नहीं होता
प्रेम की समुन्द्र मे लहराती बूंदों की तरह होती है ये रिश्तो की डोर , रिश्ता एक भवना ओर प्यार का नाम है , चाहे कोई इसे माने या न माने, रिश्तो में हम किसी भी प्रकार का मालिकाना हक नहीं जता सकते क्योंकि रिश्ते जो है प्रेम वात्सल्य और भावनाओं से होती है ना की जोर जबरदस्ती से हम अपना हक उसी पर जता सकते हैं जिस चीज को हम खरीद सकते हैं उसका उपभोग कर सकते हैं उपयोग कर सकते हैं किंतु रिश्तो को ना हम खरीद सकते हैं ना उनका उपयोग कर सकते हैं ना उनके उपभोग के बारे में हम सोच सकते हैं । रिश्तो में खटास वहीं पर हो जाती है जहां हम एक दूसरे के प्रति मालिकाना हक जताना शुरू कर देते हैं ।