माँ
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(प्रबोध कुमार गोविल एक लघुकथा)
उसका बाप सुबह-सुबह तैयार होकर काम पर चला गया। माँ रोटी देकर ढेर सारे कपड़े लेकर नहर पर चली गई। वह घर से बाहर निकली थी कि उसी की तरह उसे उलझे मैले बालों वाली उसकी सहेली अपना फटा और थोड़ा ऊँचा फ़्रॉक बार-बार खींचती आ गई। फिर एक-एक करके बस्ती के दो चार बच्चे और आ गए।
‘‘चलो, घर-घर खेलें।’’
‘‘पहले खाना बनाएँगे, तू जाकर लकड़ी बीन ला और तू यहाँ सफाई कर दे।’’
‘‘अरे, ऐसे नहीं। पहले आग तो जला।’’
‘‘मैं तो इधर बैठूँगी।’’
‘‘चल, अपन दोनों चलकर कपड़े धोएँगे।’’
‘‘नहीं, चलो, पहले सब यहाँ बैठ जाओ। खाना खाओ, फिर बाहर जाना।’’
‘‘मैं तो इसमें लूँगा।’’
‘‘अरे ! भात तो ख़त्म हो गया। इतने सारे लोग आ गए ....चलो तुम लोग खाओ, मैं बाद में
खा लूँगी।’’
‘‘तू माँ बनी है क्या?’’
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