Gujarati Quote in Religious by Dangodara mehul

Religious quotes are very popular on BitesApp with millions of authors writing small inspirational quotes in Gujarati daily and inspiring the readers, you can start writing today and fulfill your life of becoming the quotes writer or poem writer.

श्रेष्ठ संस्कार से ही श्रेष्ठ समाज का निर्माण होता है

 

किसी भी समाज को चिरस्थायी प्रगत और उन्नत बनाने के लिए कोई न कोई व्यवस्था देनी ही पडती है और संसार के किसी भी मानवीय समाज में इस विषय पर भारत से ज्यादा चिंतन नहीं हुआ है। कोई भी समाज तभी महान बनता है जब उसके अवयव श्रेष्ठ हों। उन घटकों को श्रेष्ठ बनाने के लिए यह अत्यावश्यक है कि उनमें दया, करुणा, आर्जव, मार्दव, सरलता, शील, प्रतिभा, न्याय, ज्ञान, परोपकार, सहिष्णुता, प्रीति, रचनाधर्मिता, सहकार, प्रकृति प्रेम, राष्ट्रप्रेम एवं अपने महापुरुषों आदि तत्वों के प्रति अगाध श्रद्धा हो।
मनुष्य में इन्हीं सारे सद्गुणों के आधार पर जो समाज बनता है वह चिरस्थायी होता है। यह एक महत्वपूर्ण चिन्तनीय विषय हजारों साल पहले से मानव के सम्मुख था कि आखिर किस विधि से सारे उत्तम गुणों का आह्वान एक-एक व्यक्ति में किया जाए कि यह समाज राष्ट्र और विश्व महान बन सके।भारतीय ऋषियों ने इस पर गहन चिन्तन मनन किया। आयुर्वेद के वन्दनीय पुरुष आचार्य चरक कहते हैं कि-
संस्कारोहि गुणान्तरा धानमुच्चते
अर्थात् यह असर अलग है। मनुष्य के दुर्गुणों को निकाल कर उसमें सद्गुण आरोपित करने की प्रक्रिया का नाम संस्कार है। वास्तव में संस्कार मानव जीवन को परिष्कृत करने वाली एक आध्यात्मिक विधा है। संस्कारों से सम्पन्न होने वाला मानव सुसंस्कृत, चरित्रवान, सदाचारी और प्रभुपरायण हो सकता है अन्यथा कुसंस्कार जन्य चारित्रिक पतन ही मनुष्य और समाज को विनाश की ओर ले जाता है। वही संस्कार युक्त होने पर सबका लौकिक और पारलौकिक अभ्युदय सहज सिद्ध हो जाता है। संस्कार सदाचरण और शाश्त्रीय आचार के घटक होते हैं। संस्कार, सद्विचार और सदाचार के नियामक होते हैं। इन्हीं तीनों की सुसम्पéता से मानव जीवन को अभिष्ट लक्ष्य की प्राप्ति होती है। भारतीय संस्कृति में संस्कारों का महत्व सर्वोपरि माना गया है, इसी कारण गर्भाधान से मृत्यु पर्यन्त मनुष्य पर सांस्कारिक प्रयोग चलते ही रहते हैं। इसलिए भारतीय संस्कृति सदाचार से अनुप्रमाणित रही है।
प्राकृतिक पदार्थ भी जब बिना सुसंस्कृत किए प्रयोग के योग्य नहीं बन पाते हैं तो मानव के लिए संस्कार कितना आवश्यक है यह समझ लेना चाहिए। जब तक मानव बीज रूप में है तभी से उसके दोषों का अहरण नहीं कर लिया जाता तब तक वह व्यक्ति आर्य नहीं बन पाता है और वह मानव जीवन से राष्ट्रीय जीवन में कहीं भी हव्य कव्य देने का अधिकारी भी नहीं बन पाता। मानव जीवन को पवित्र चमत्कारपूर्ण एवं उत्कृष्ट बनाने के लिए संस्कार अत्यावश्यक है। गहरे अर्थों में संस्कार धर्म और नीति समवेत हो जाती है। इसीलिए संस्कार की ठीक-ठाक परिभाषा कर पाना सम्भव ही नहीं है। संस्कार शब्दातीत हो जाते हैं क्योंकि वहां व्यक्ति क्रिया और परिणाम में केवल परिणाम ही बच जाता है। व्यक्ति के अहंकारों का क्रिया में लोप हो जाता है। एक तरह से व्यक्ति मिट ही जाता है तो जब व्यक्ति मिट ही जाता है तो परिभाषा कौन करेगा अब वह व्यक्ति समष्टि बन जाता है। वह निज के सुख-दुख हानि लाभ जीवन मरण, यश अपयश के बारे में काम चलाऊ से ज्यादा विचार ही नहीं करता। उसका तो आनन्द परहित परोपकार और समाज एवं सृष्टि को संवारने में ही निहित हो जाता है और संस्कारों की उपर्युक्त क्रिया ही चरित्र, सदाचार, शील, संयम, नियम, ईश्वर प्रणिधान स्वाध्याय, तप, तितिक्षा, उपरति इत्यादि के रूप में फलित होते हैं।

संस्कारों से अनुप्राणित व्यक्ति की सत्य की खोज एक सनातन यात्रा बन जाती है। और वह प्राप्त सत्य केवल एक भीतरी आनन्द देता है जिसकी ऊर्जा से आपलावित होकर व्यक्ति समाज और मानवता के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर कर देता है। उस सत्य की व्याख्या नहीं की जा सकती। उसे केवल अनुभव किया जा सकता है क्योंकि वो शब्द छोटे पड़ जाते और जो अनुभूति है वो इतनी विराट है कि अनादि, अनन्त। इस अनन्त को सात मानव शब्दों में कैसे पकड स़कता है, वहां तो हर कुछ अद्वैत हो जाता है। ‘नारद भक्ति सूत्र’ में आता है कि सत्य एक है वह अद्वैत है। साधारण ढंग से देखने पर दर्शक, दृश्य और द्रष्टा या ज्ञाता ज्ञेय और ज्ञान तीन दिखाई देते हैं। थोड़ी और गहराई में दो ही बच जाते हैं, लेकिन सच तो यह है कि वह केवल अद्वैत है। वहां ज्ञाता और ज्ञेय दोनों मिट जाते हैं केवल ज्ञान बच जाता है।
तस्या ज्ञान मेव साधनमृत्यके
(नारद भक्ति सूत्र 28)
यह संस्कार वही ज्ञान है, इस त्रिभंग से मुक्त होना ही संस्कार का परिणाम है। ऊपरी तौर पर भी हिन्दू संस्कृति ने इसकी बड़ी सुन्दर व्यवस्था रखी ही है। कुम्भ मेले में अमृत रसपान हेतु लाखों-लाखों लोग लाखों वर्षों से एकत्र होते रहते हैं। वहां भी वे दृश्य गंगा और जमुना में स्नान करते हैं, लेकिन अनुभूति तो अदृश्य सरस्वती की होती है। यह सरस्वती ही ज्ञान है यही संस्कार का सुफल है यह सरस्वती दृश्यमान नहीं है। अनुभूति जन्य है इस सरस्वती को व्याख्यायित करना संभव ही नहीं है केवल कुछ लक्षणों को पकडा़ जा सकता है। यह अद्भुत प्रेम है, जिसमें प्रेमी और प्रेयसी दोनों डूब जाते हैं। केवल प्रेम बच जाता है। यह प्रेम केवल करने से समझ में आता है। शब्दों से इसका स्वाद नहीं मिल पाएगा।
प्रेमैव कार्यम् प्रेमैव कार्यम्।।
यही संस्कार है। यूं तो प्रत्येक समाज अपने घटकों को सुसंस्कारित करने का प्रयास करता है। उसके लिए आदर्श भी रखता है। संस्कार की परिधि इतनी व्यापक है कि उसमें श्वास प्रश्वास से लेकर प्रत्येक कर्म समाविष्ट है।
ब्राह्सस्कारसंसकृतः ऋषीणां समानतां सामान्यतां
समानलोकतां सामयोज्यतां गच्छति।
दैवेनोरेण संस्कारेणानुसंस्कृतो देवानां समानतां
समानलोकतां सायोज्यतां च गच्छति
(हारित संहिता)
संस्कारों से संस्कृत व्यक्ति ऋषियों के समान पूज्य तथा ऋषि तुल्य हो जाता है। वह ऋषि लोक में निवास करता है तथा ऋषियों के समान शरीर प्राप्त करता है और पुनः अग्निष्टोमादि दैवसंस्कारों से अनुसंस्कृत होकर वह देवताओं के समान पूज्य एवं देव तुल्य हो जाता है। वह देवलोक में निवास करता है और देवताओं के समान शरीर को प्राप्त करता है।
अव्याकृत किन्तु अनुभव गम्य संस्कारों के फूल जिसके हृदय में खिले हैं और जिसकी पवित्र सुगन्ध वातावरण को मुग्धकारी बना देती है उन ऋषियों ने लोक कल्याण हेतु संस्कारों के लक्षण कहने का प्रयास किया है। यद्यपि वे अनुभोक्ता अपने आनन्द को शब्दों में परिभाषित तो नहीं कर सकते फिर भी कुछ संकेत उन्होंने उसी दिशा में दिए हैं जिससेप्राणी मात्र उसी का अनुसरण कर अपना लौकिक और पारलौकिक उéयन कर सके।
संस्कृतस्य हि दान्तस्य नियतस्य यतात्मनः।
प्राज्ञस्यानन्तरा सिद्धिरिहलोके परत च।।
(महाभारत)
जिसके वैदिक संस्कार विधिवत् सम्पन्न  हुए हैं, जो नियमपूर्वक रहकर मन औैर इन्द्रियों पर विजय पा चुका है, उस विज्ञ पुरुष को इहलोक और परलोक में कहीं भी सिद्धि प्राप्त होते देर नहीं लगती।
अंगिरा ऋषि कहते हैं कि-
चित्रकर्म यथाडेनेकैरंगैसन्मील्यते शनैः।
ब्राह्ण्यमपि तद्वास्थात्संस्कारैर्विधिपूर्व कैः।।
जिसके प्रकार किसी चित्र में विविध रंगों के योग से धीरे-धीरे निखार लाया जाता है, उसी प्रकार विधिपूर्वक संस्कारों के सम्पादन से ब्रह्ण्यता प्राप्त होती है।
मानवीय संस्कारों के महत्वपूर्ण तत्वों की ओर इंगित करते हुए भगवान वेद व्यास कहते हैं-
न चात्मानं प्रशंसेद्वा परनिन्दां च वर्जयेत्।
वेदनिन्दां देवनिन्दां प्रयन विवर्जयेत्।।
(पुराण)
अपनी प्रशंसा न करे तथा दूसरे की निन्दा का त्याग कर दे। वेदनिन्दा और देवनिन्दा का यत्नपूर्वक त्याग करे।
संस्कारों से ही आचरण पवित्र होते हैं।
आचारः परमो धर्मः सर्वेषामिति निश्चयः
हीनाचारी पवित्रात्मा प्रेत्य चेह विनश्यति।।
सभी शास्त्रों का यह निश्चित मत है कि आचार ही सर्वश्रेष्ठ धर्म है। आचारहीन पुरुष यदि पवित्रात्मा भी हो तो उसका परलोक और इहलोक दोनों नष्ट हो जाते हैं।
राष्ट्र कवि रामधारी सिंह दिनकर जी की एक पुस्तक की प्रस्तावना में तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने 30 सितम्बर 1955 को एक बडे़ लेखक के हवाले संस्कृति के बारे में लिखा था कि-

-Dangodara mehul

Gujarati Religious by Dangodara mehul : 111704094
New bites

The best sellers write on Matrubharti, do you?

Start Writing Now