स्वर
जितना जितना
जीवन का मर्म
बुन लेती हूं मैं,
उतना उतना
ईश्वर का स्वर
सुन लेती हूं मैं ।
प्रार्थना के धागों से
मन के अनुरागों से
संतुलन कर्मों का
कर लेती हूं मैं
भ्रम के अंधेरे में
बिखरे नगीनों को
फिर से चुन लेती हूं मैं।
ईश्वर का स्वर ऐसे
सुन लेती हूं मैं
शब्दों के चांटे,
धोखों के कांटे,
जिन जिन ने बांटे,
आभार ,अनुग्रह
उनका कर लेती हूं मैं
मांग कर सुख उनका
ईश्वर का स्वर
सुन लेती हूं मै।।
प्रारब्ध की डोर,
कोई ओर ना छोर,
क्षमा के मोती में
आस की ज्योति
पिरो लेती हूं मैं ।
कर्म की गठरी को
होले होले हल्का
कर लेती हूं मैं ।
ईश्वर का स्वर ऐसे
सुन लेती हूं मै।
वर्षा उपाध्याय