देर रात तक उलझी रही मैं ख्वाबों और खयालों में
उधेड़बुन करती रही अपने ही जवाब और सवालों में
कभी सोचती, बहुत देर हो गई सारे रास्ते बंद हैं
कभी दिल कहता, देर तब तक नहीं होती जब तक हौसले बुलंद हैं
कभी सोचा, क्या कहेगा ये ज़माना, अकेली निकल पड़ी है
तो जवाब आया, ये दुनिया कब किसके लिए खड़ी है
अपना अस्तित्व बनाना है, जो अपने हुनर को निखारना है
दूसरों को नहीं, पहले खुद को ही समझाना है
रात बीती यूं हीं और सामने थी पहली किरण भोर की
मेरी नज़र भी अब सब भूल सिर्फ मेरे लक्ष्य की ओर थी
सुनहरी धूप ने आज मुझको गहरे विश्वास से नहलाया था
आज मैंने पहली बार खुद के लिए अपना पहला कदम बढ़ाया था
निकल पड़ी हूं सपनों की कली आंखों में लिए, उसको फूल बनाना है
जिसने कर ली फतह अपने डर पर, कामयाबी उसी की है , उसके ही कदमों में ज़माना है।
-अनुभूति अनिता पाठक