लोग मिलते गए, बदलते गए
बीच राह पर यूँ छोड़ते गए
मगर ये भी तो अच्छा ही हुआ,
धीरे धीरे सबके मुखौटे उतरते गए
हम तो मुसाफिर थे मुसाफिर बनते चलते गए...
कभी फूल मिले; तो कभी कांटे,
कई "खुशी" तो कई ग़म देते गए
मगर ये भी तो अच्छा ही हुआ,
धीरे धीरे हम दुनिया को पहचानते गए
हम तो मुसाफिर थे, मुसाफिर बनते चलते गए...
हमने कुछ पा लिया; कुछ गवां बेठे,
अकेले ही एक सफर मे चलते गए
मगर ये भी तो अच्छा ही हुआ
धीरे धीरे खुद ही के साथ चलते गए
हम तो मुसाफिर थे मुसाफिर बनते चलते गए...
-Parmar Jagruti