कैसे ??
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इतने सारे संकल्पों पर ख़ुद को खरा उतारूँ कैसे
भीड़ बहुत है मन के आँगन ,उसको भला बुहारूँ कैसे
-कच्चे चिट्ठे हैं जीवन के ,उनको ढाँप-ढांपकर रखा
पलक-पाँवड़े बिछा-बिछाकर ,उन्हें सहेजा ,उनको सींचा
मन के विश्वासों की साँकल अब खोलूँ और झाँकूँ कैसे
-समय विराना ,बोझिल मन है ,पीड़ाओं से हुई जलन है
देख कबीरा क्या-क्या गाता ,बोझिल हो जाता ये तन है
शरणार्थी बन भटक रहे हैं ,अपना हक जतलाऊँ कैसे
-वीरानों के जंगल बनते रहे सदा ही मन में जब-तब
स्नेह कभी न बाँटा खुलकर क्यों पछताना रहता है अब शैया बनी हुई काँटों पर ,उससे पिंड छुड़ाऊँ कैसे
-सत्ता का मद चढ़ा हुआ था ,पाठ पढ़ा जो पूरा न था
गलियारों में भीड़ बढ़ी तो ,क्रोध,ईर्ष्या में भटके बस
समय हो चुका व्यापारी जब ,उसको अभी भुनाऊँ कैसे
-क्यारी-क्यारी में बोए थे कुछ सपने कोमल,बासंती
जोड़-घटा कुछ समझ न आया ,कटुता से चादर ही रँग दी कच्ची माटी का बर्तन अब टूटा ,दही जमाऊँ कैसे ?
डॉ. प्रणव भारती