कही अच्छा नहीं लग रहा...
ना कोइ गाना भाता ना कोइ जगह
ना बारिश ना किरने ना ही बालो से खेलती हवा
लगे जेसे भिड मे अकेला अपने भी मेरे पराए,
दिनभर बस फोन ओर मे, काटती उंगलिया मिलो का सफ़र
हाफ़ती आंखे देख देख रास्ता, ओर वो भी पता नही किस्का...
बिते कल मे देखी कल कि सुरत मेरे आज से ना मिले
दुनिया जमाने से नही खुद से है हज़ारो गिले..
बस मुजे कही अच्छा नहीं लग रहा...
बचपन से ये रोग नही पता कम खतम होगा ये सोग
ना त्योहार के रंग ना उत्सव मे कोइ उमंग...