"तन के बंधनों को पूरा कर
एक पड़ाव पूरा करता है, 'मन'
जब अनुभवों का खजाना
हाथ लगता है,
करते-करते 'कर्म' अपने
पारिवारिक और सामाजिक
दायरे फैल जाते हैं।
जब हम अपने ही
नाम से जाने जाते हैं,
जब सारी हसरतों को
आकांक्षाओं को पा जाते हैं।
जब लेने में नहीं
देने में आ जाते हैं,
कभी हमसे थे बड़े कई
आज हम ही बड़े बन जाते हैं।
जब धीरे-धीरे 'तन'
ढ़लने लगता है,
'मन' थक जाता है,
तब ये 'अहसास' हो जाता है,
तन 'बूढ़ा' हो जाता है।।"