सौ बार मैं टूटी हूँ , सौ बार जुड़ी हूँ
अपना सर्वस्व समर्पण करके ,अपनों का साथ दिया
अपनों की खातिर पीछे मैं , सौ बार मुड़ी हूँ
विश्वास किया मैंने , दिल शीशा चटक गया
टुकडे़-टुकड़े दिल से , मेरी दुनिया नयी गढ़ी हूँ
दिल पर हैं घाव अनेकों , गिनना है इन्हें मुश्किल
अनगिन चोटें खाकर , सौ हर बार उठी हू्ँ
बढ़ने की चाहत में , पुरुषार्थ किया मैंने
जंजीरें हजारों तोड़ी , तब आगे बढ़ी हूँ
इस जग की ठोकर से , मैं जितना नीचे गिरी
साहस की डोर पकड़कर , पहले से ऊँचा चढ़ी हूँ
इस जग में खुश रहना , कमजोर का हक नहीं है ,
शक्ति-पूजा करके मैं , दृढ़ता से आज खड़ी हूँ
सौ बार मैं टूटी हूँ , सौ बार जुड़ी हूँ
डॉ. कविता त्यागी