याद
हवा चल रहि थी
पत्ते हील राहे थे
कभी मै भी
यह पत्ते की तरह थीं
थोड़ा हवा का झोका से भी
हलचल हलचल
अभी बी हवाका झोंका आती है
वैसे ही तरह पत्ते हिलते है
लेकिन नहीं हिलती हुँ मैं
क्यों कि पत्ते नही
अभी वन गई हूं मैं पहाड
जो वस खड़ा रहता है
स्थीर अटल
बर्फ़ की तरह था
यह दिल भी कभी कभी
पिघलता था धीरे धीरे
बढ़ता था जैसे जैसे
ग़म का तापमान
और होता था
सावन की तरह
वारिस आँसू की
लगता था यह आखों नहीं
मैं चलरही हूँ
लेकर गहरी तालाब
लेकिन अब
नहीं दुखता दिल
रोती नहीं आँखो
क्यों की मेरे अंदर अब
कोमल दिल नहीं
वन गया है कठोर
पत्थरो का दिल
पत्थर बन्ने की बाद
यह दिल
यादे भी लगने लगा है
बारूद की तरहा
जिसको मैं
आग से लपेटकर
जला जलाकर
काटती हूँ यह निरमम निरमम रांत
ओ सूनो आप
वैसे ही तरहा
भेजते रहना यादे
क्योंकि यादकी बिना
शून्य लगती है यह रांत
जिस तरह लगता है
आपकी बिना मेरी
दुनिया शून्य
© स्वर्णिम सहयात्री