काश खो जाऊं फिर से बचपन की हसीन वादियों में,
न दिन का पता था, न शाम की खबर।
अलसाते हुए सुबह स्कूल जाने के लिए उठना,
वो स्कूल की मस्ती, टीचर की डांट पर भी मुस्कुराना।
बारिश में भीगते हुए घर आना,
और फिर मां की डांट खाना।
न किसी से दुश्मनी, न किसी से था बैर,
सब थे अपने , न कोई था गैर।
न चिंता थी कमाने खाने की,
न चिंता जमाने की।
गणित हमेशा रुलाता था,
तो हिन्दी सदैव गुदगुदाती थी।
वो गिल्ली- डंडे का शोर,
वो कंचों की खनक।
वो मस्ती, वो दोस्तों की सनक।
क्यों हम छोटे से बड़े हो गए,
वो सारे पल खो गए।
अब भी बारिश आती है,
पर भीगने का वक्त नहीं।
अब भी दोस्त हैं,
पर मस्ती का वक्त नहीं।
अब भी वही गलियां हैं,
पर कंचों के लिए वक्त नहीं।
अब भी दोस्त हैं,
पर दुश्मनों की कमी नहीं।
अब किताबों की जगह,
बैग में आफिस की फ़ाइलें हैं।
मां अब भी है,
पर उसकी वो डांट नहीं।
काश पलट जाऊं, फिर से बचपन की राहों मैं,
फिर से बेफिकर सो जाऊं मां की बांहों में।
लेकिन ये काश, काश ही रह जाता है...........