# कविता "
# विषय .विधवा एक अपशुकन नहीं....
विधवा एक ,अपशुकन नहीं है ।
फूल सी नाजूक ,चाँद सी सुन्दर है ।।
ममता की मूरत ,वात्सल्य की देवी है ।
उस पर ये ,कैसा ग्रहण लगा है ।।
नारी तो विधाता ,की श्रेष्ठ कृति है ।
जिसे विधाता के ,क्रुर हाथों ने लुटा है ।।
इसमें इसका ,क्या कसूर है ।
वह तो आपके ,प्रेम की भुखी है ।।
आपके अपनत्व ,की प्यासी है ।
उसके साथ ये ,कैसा अन्याय हुआ है ।।
समाज की पुरानी ,रुढ़ियाँ बदलनी है ।
नारी का फिर ,सम्मान करना है ।।
विधवा क्या ,नारी का रुप नहीं है ।
समाज का वह ,अभिन्न अंग नहीं है ।।
उसका पुनः ,विवाह करना है ।
वह फूल सी फिर ,खिलखिल जायेगी ।।
आपका उपकार ,जन्म भर मानेगी ।
अपने दुःख के ,पल फिर भुल जायेगी ।।
वह समाज की ,प्रताड़ना से बच जायेगी ।
हैवानियत की नजरों ,से सुरक्षित हो जायेगी ।।
बृजमोहन रणा ,कश्यप ,कवि ,अमदाबाद ,गुजरात ।