एक दिन पूछा नदी से,
तु उग्र क्यूँ होती हैं,
शांत कल कल ही तो तु,
सदियों से बहती है....
नदी बोली शांत रहना,
पहचान है मेरी,
सहना सारे जख्मों को,
फितरत है, मेरी.....
इस दुनिया का,
दस्तूर इस क़दर,
जो चुप रहते है,
उन्हें करते दर-बदर.....
आँखों में,
आँसू आते हैं,
दुखः सहने वाले पर,
अक्सर आँसू पी जातें हैं......
जख्मों से जब दिल,
बेजार होता हैं,
दर्द के दरिया का,
रूप तुफान सा,
इख़्तियार होता हैं.....
अपराधी जमाने को,
सजा देने,
तब उग्र बन जातीं हूँ,
रोक ज़माने के कदम,
अपने अस्तिव को,
बचाती हूँ......!!!!!!
✍✍वर्षा अग्रवाल द्वारा रचित....
#उग्र