रक्श करती निगाहें भी, कभी खामोश होती है,
उलज़न कभी सुलजन, कभी खामोश होती है
रुसवाई के दौर से गुज़रती, ये मौज मिलन की
छुकर रुहाना जज़बात , कभी खामोश होती है
बदल जाती है राहें , कहीं निगाहे जिंदगी मैं भी
कुछ अहेसास दिलाती, कभी खामोश होती है
.
मौज़ ए दरिया कही फैन , कही बुलबुला भी है
आब मैं हस्ती आब की, कभी खामोश होती है
मैं तो मिला ही नही, ना बिछडना नसीब मेरा ही,
अलविदा अलफा़ज में भी,कभी खामोश होती है.