"जिंदगी भटक गई है"
बरसों के चक्रव्यूह में फंस कर घूम रहा हूँ
पलकों से बहती ख्याहिशों को चूम रहा हूँ
बेमौषम की हवाएं चित्रकूट की
अंधेरी खोह में पटक रही हैं
कितने ही हलों की नोकें
देह की धरती में गड़ी हैं
जीवन की डोरें क्षीण होने पर
अब तुली पड़ी हैं
अरमानों की फटती चादरें
दशकों से मुझे पुकार रही हैं
आशाओं की भट्टी ललकार रही है
कर्म का घन मुझे गुहार रहा है
मैं तब भी भटक रहा था
मैं अब भी भटक ही रहा हूँ
कच्चे घर की खपरेलें
सिसकियां भरती हैं शदियों से
फटे खेत प्यासे हैं बरसों से
संध्या मैली हो गई है
सुबह पर छाया घना अंधेरा
छाती पर कितने उलाहने
शूली बन उर में धसक रहे हैं
सूखी धरती के कण कण को
दशकों से चूम रहा हूँ
मजबूरी के इर्दगिर्द मैं घूम रहा हूँ
मन मे अंतर्द्वंद छिड़ा है
वक्त के अकुआएँ कजरियों पर
मैं कब से कृतघ्न पड़ा हूँ
रचनाकार-शिव भरोस तिवारी "हमदर्द"
किताब:-"सत्य के छिलके" संग्रह से
सर्वाधिकार सुरक्षित