उफ ! तक ना कर सका मेरा मन ,
इस वदन को वदन कहु या वंदन करु ।
चूभती भी नही ऐसी नाजुक शी मासुमियत ,
इसे देखके फिर देखु ; फिर आहट पे आहट करु ।
ये जो बिखरी हौ मुज में; कैसे सिमटूंगा इसको में ,
इसे आंखों से पीलू या नजर से सज़दा करु।
बिन बादल घनघोर सी रहती हो ज़ुल्फो के तले ,
इसे लहरता लिखूं या देखके बहका करु ।
नमी ऐसे शमशीर बनके खड़ी है मानो वार करेंगी,
ये आंखे आयना बताती है खुद को कैसे दिखता करु ।
सदन सारा बहक उठा होगा इस बदन को देखकर,
"ह्रदय" कीं धकधक बढ़ती है ,इसे कैसे संभव करु ।" " " हृदय "