बीसवाँ साल
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20 की उम्र,
कितने हसीन सपने,
रुमानियत आँखों मे
हौसला जज्बातों में
चेहरे पर दृढ़ता
कुछ कर जाने की ललक।
कितनी बेसब्र रहती थी उम्र
बीसवाँ पड़ाव सुनने को
बालिग होने का दूसरा पहर
अपने निर्णय लेने की छूट
हर वक़्त लबों पर
छलकती मादक मुस्कान
हाथों में हाथ अजनबी का
जो पराये से करीबी बना
मगर
वक़्त की कैसी
अजीब करवट है यह
अब बीस का आंकड़ा ही
भयावह लगने लगा है
आंखों में डर के साये
कलेजा थरथराने लगा है
कहर महामारी है या
परिणाम अंतहीन तृष्णाओं का
दिमाग को जंग लगा हो जैसे
सोच कुंद हो रही है।
खुश रहने की कोशिशें
अक्सर असफल हो रही हैं
फिर भी
प्रकृति भरपूर निखर रही है
अपने दोहन से उबर रही है
लौट आयी चिड़ियों की चहक
मयूर नाचने लगे है।
नदियाँ मचलती हुई इठलाई
पर्वतों का रूप निखरा
बेखौफ मनुष्य घबराया
सिमटती प्रकृति विस्तारित होने लगी है।
शायद
ईश्वर अपना अस्तित्व दर्शा रहे
मनुष्य पिंजरे में
और
जानवर स्वछंद घूम रहे
असन्तुलित होती धरा को
पुनः संतुलित कर रहे।
कुबुद्धि बने मनुष्य को
उसकी हैसियत दिखा रहे
मेहमान बनाकर भेजा था
तुम हक जताने लग गए।
मेरी बनाई सृष्टि से
खिलवाड़ करने लग गए
मैं दिखता नही तो तुमने
मेरे आस्तित्व पर ही
असंख्य सवाल खड़े कर दिये
बन्द हैं मेरे कपाट अब सुनो
मुझे तुम्हारी नही
तुम्हे मेरी जरूरत है मानो
विनय...दिल से बस यूँ ही