"एक बूढ़ी भिखारिन"
मै अपनी आफ़िस का
शटर खोल ही रहा था कि
सामने एक भीख मांगने वाली बूढ़ी
भिखारिन दोनों हाँथ फैलाये खड़ी थी
चेहरे की झुर्रियों की रोशनी में
उसके टूटे दांत मुझे साफ़ दिख रहे थे
भूख उसके सीने को चाकू की तरह
जैसे चीर रही थी
शटर छोड़ कर पैंट के जेब को टटोलता हूँ
जल्द ही अनुमान हो गया की
पर्स घर की टेबिल पर छूट गया
मगर मेरे मन में उस बूढ़ी माई को
कुछ देने के लिए छटपटाहट थी
हाँथ हाली थे
मै अपने दोनों हाँथ जोड़ कर
बूढ़ी माई से माफ़ी मांगते हुए
उसे अपने सीने से चिपका लिया
देखते ही देखते उसकी आँखों से
जैसे सोता फूट पड़े हों
मैंने उससे रोने का कारण पूछा तो
रुंधे स्वर में वह मुझसे कहने लगी
बेटा तुम रोज पर्स भूल आना
और इसी तरह रोज अपने
सीने से लगा कर
मुझको अपने बेटा होने का
एहसास दिलाना मुझे किसी ने
इतना प्रेम नही दिया
लोग भिखारिन ही समझते रहे।
किताब-"भारत बंदी के वो इक्कीस दिन"
लेखक-शिव भरोस तिवारी "हमदर्द"