बूढा बटबृक्ष
मै एक ऐसे बटबृक्ष को जानता हूँ
जो एक शहर की गली किनारे
वरसों से अपनी बड़ी बड़ी मुछों
को ताव देते सीना तान कर खड़ा है
उसके सीने में अनगिनत कहानियां
नदियों के नीर की तरह बहतीं हैं
जो किसी किताब में नही मिलती हैं
उस गली से जो भी कोई गुजरता है
वह एक जादूगर की तरह
उसके सामने प्रगट हो जाता है
सुनाने लगता है वही कहानियां
जो विकट अँधेरे सी चीखती हैं
बूढ़े बटबृक्ष के पास मै कान सटाता हूँ
उसकी पूरी बात में वह कहता है भाई
यह कोर्ट है यहाँ सदियों से झूठ को सच
सच को झूठ बनाने का खेल होता है
घूस को यहाँ के दानव चिलम बना कर
सुलगाते हैं फिर मिल बैठ कर पीते हैं
नही नही मुझसे सहा नही जाता है
उसकी आँखों में पीड़ा भरी चमक थी!
किताब-"भारत बंदी के इक्कीस दिन" संग्रह से
लेखक-शिव भरोस तिवारी 'हमदर्द'