"इक्कीस चक्कर''
अक्सर मैं बंदी की छूट के सायरन बजते
ही निकल पड़ता हूँ पत्थर के ढोंका तोड़ने
अपने मालिक से जो मजदूरी मिलती है
उससे तोड़ लाता हूँ घास की कोपलें और
नीम की कुछ हरी छरहरी सी पत्तियां
कुर्ते की जेब में भर लाता हूँ हवा की नमी
जिन्दगी थोड़ी थोड़ी सी सरक सी रही है
पैर थम रहे हैं उन्हें पगडंडियाँ भर याद हैं
उसकी पूँछ पकड़ कर हांकता जा रहा हूँ
तास के घर में अब घुस चुकी है पूरी गर्दन
जरा सी धूप उसी के सहारे निकल रहा हूँ
कभी शब्दों को फेंकता हूँ किसी की ओर
रोटी के टुकड़े को हलक से उतारता हूँ
कभी छत की मुडेर में बैठ गुनगुनाता हूँ
एहतियाद और शब्द के युध्द में शामिल हूँ
जानते हुए की इनकी चोट का दर्द भारी है
अँधेरी रात्रि की तरह असमान से गुजरता हूँ
खुद को बदल देता हूँ जलती हुई गोरसी में
अचानक सुलगा लेता हूँ याददास्त की हद को
अपने अकेले के छ्णों को समर्पित कर देता हूँ
खुद को दूंढ़ने में हिंदी के सम्पूर्ण शब्द कोष में
बिस्तर को नींद की गरमाहट पर छोड़ देता हूँ
ऊंघते हुए हांथो से ईश्वर को नमन करता हूँ
रात्रि की तंदूरी रोटी में सुबह का लेप लगाता हूँ
मिनट दर मिनट हांथों की मेहराबों को धोता हूँ
रोज अपने कमरे के ईक्कीस चक्कर लगाता हूँ
किताब-"भारत बंदी के इक्कीस दिन" संग्रह से
लेखक-शिव भरोस तिवारी 'हमदर्द'