ऐसे दृश्यों को देख सच कहता हूँ,"ईश्वर को मरते देखा है!"
// कविता //
१. रुकना मौत है !
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" मां मैं चल रही हूं,
देखो! मैंने आंसू नहीं बहाएं
गट्ठरी सिर पर ले ली हूँ...
अब तुम जान गई न
मैं भी मैरी कॉम हूँ
मैं ही तुम्हारी पी. टी. उषा..."
ओह! तुम आ रही हो न पीछे
देखा! देखा! देखा!
मैं चल रही हूं
मां कहाँ छुट गई हो ?
देखी! मैं तुमसे तेज चल रही हूं
बिलकुल... मेरे सामने से गुजरती गाडिय़ों की तरह
देख रही हो... ओह ! मां...
मेरे पैरों के छाले ठीक नहीं हो रहे
बल्कि यह मुझे और चलने के लिए प्रोत्साहित कर रहे है.
सड़कों पर कई सहेलियां है
मगर
सभी के आंखों में यह आंसू?
ओह!
मां!
कुछ बोलो भी सही...
देख! मैं चल रही हूं
हम जरूर पहुंच जाएंगे घर
हां! अपने घर
जहाँ बाबू जी खेत से
तरकारी ला कर रखें है ?
फोन पर कहें थे बाबू जी
तुम बनाना भात, दाल, सब्जी
हम सब मिलकर खाएंगे.
ऊठ मां देख...
मैं कभी नहीं
तुम्हें सताऊंगी...
कसम से
मां के सम्पूर्ण शरीर पर
सफेद रंग का चादरपोशी है
कई लोग इधर-उधर भाग रहे हैं,
रास्तों पर समय संवाद कर रहा है
मन पर मासूम बच्ची के हस्ताक्षर
और मजदूर वर्ग हताश....
तभी पीठ पर पड़ते असंख्य लाठी
एक व्यक्ति चीखने लगा-
भागों ! भागों !
रूकना मौत है !
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सर्वाधिकार सुरक्षित;
©रोहित प्रसाद पथिक
२८/०३/२०२०.