देकर अधिकार मुझे तुम ने हे ईश्वर ! क्या कर छोड़ा है, मैं श्रृजन कर रही जिसका उसने ही मुझको तोड़ा है हर ओर हो रही अपमानित, नित पीड़ा में डुबोया है ,जब घर से निकली बाहर थी, कभी घर के अन्दर रोया है , है स्वभाव में प्रेम छुपा ममता, क्षमता दुःख सहने की, साँस न बाधित हो, तब तक "जिन्दा" रहने की , सब कह तो देते हैं लक्ष्मी पर, घर पर निन्दा होती है सर्वस्व लुटा देने पर भी केवल अपमानित होती ही हूँ .