#साथी
उम्मीद न थी तुमसे कुछ भी, न तुमसे कुछ भी माँगा था तुम डर कर सिमट गये ऐसे जैसे जीवन का खाता था, न थी मिलने की इच्छा ही, न आँखें ही पथकायी थी, न कानों को कोई पीड़ा थी न तृष्णा मन में आई थी, मन फिर भी था विचलित होता, बार -बार खुद को खोता जैसे के कोई नाता हो पिछले जन्मो का खाता हो. बस एक आवाज लगाई थी " साथी" पीड़ा दोहराई थी.