चाहे कितना भी क्युं न करलुं मैं,
इन सबको सब कम ही लगता है।
ऐसा ही रहेगा युंही हररोज चाहें,
अगर मर भी क्युं न जाउं कभी मैं।
कोई भी फर्क नहीं पड़ता इन्हें,
सबको बस अपने में ही रुची है।
क्या जाने ये लोग कि हररोज कैसे,
किस-किस दौर से गुजरती हुं मैं।
जब घर को हररोज आती हुं ऐसे,
खुदको खोकर सुबह से शाम मैं।
कोई नहीं पुछता कि तु कैसी है,
और क्या कहुं कि हालात कैसे है।
- કૃતિ પટેલ "कृष्णप्रिया"