* हम साथ चलें*
ना कभी जीतने की प्रबल चाहत रही ,
और ना कभी हारने की रंजिश,
हाँ, सभी के साथ,
कदम से कदम मिलाकर,
चलने की एक ख्वाहिश है हरवक्त मेरी ।
जो जीतते हैं वो भी अपने हैं,
जो हारते हैं वो भी अपने ,
पर, बहुत फर्क देखा है दोनों में,
जीतने वाले अधिक खुश होते,
और हारने वाले, ओह! बेहद मायूस!
मायूस का चेहरा ....
मुझे पहले दिखता,
क्योंकि, जीतने वालों से वह
हमेशा ओझल रहता !
क्यों ना, हारने वालों के साथ हम चलें ?
क्यों ना, उनका हौसले बढायें?
क्यों ना, हम एक दिये से अनेक दिये जलायें?
ताकि खुद को वह कभी अकेला, पिछड़ा
और मनहूस न समझे !
कोई बेकार नहीं होता,
हर आदमी अपने में मशहूर होता है,
हाँ, जरूरत है...
अपने निहित गुण को पहचानने की,
उस गुण को उसे संवारने की,
फिर उसकी भी जीत तय है,
एकबार नहीं, सौ बार उसकी फतह है।
मिन्नी मिश्रा / स्वरचित
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