गा रहा हूँ गीत अपने......(सजल)
गा रहा हूँ गीत खुद के, जो दिखा लिखता रहा।
जिन्दगी की मुश्किलों में, जो सदा चुभता रहा।।
सुनने को कोई नहीं था, अपने में ही सब मगन थे।
कापियों से मित्रता कर, पन्नों को भरता रहा।।
शहर में हम जब बसे थे, ठौर भी अपने नहीं थे।
मंजिलों तक खुद पहुँचने, रात दिन चलता रहा।।
सोचता था चैन ले लूँ, पल दो पल आराम कर लूँ।
हर घड़ी मिलती चुनौती, उनसे ही लड़ता रहा।।
चाह जब होती असीमित, जेब तब होती है सीमित।
उम्र की है एक सीमा, मन में यह खलता रहा।।
भटका हूँ जब भी डगर से, मुझको गीता ने रिझाया।
कर्म की फिर देहरी में, लौट घर आता रहा।।
भूल से भी दिल दुखे न, इंसानियत का सर झुके न।
स्वार्थ की परछाईंयों से, बचके मैं बढ़ता रहा।।
गा रहा हूँ गीत खुद के, जो दिखा लिखता रहा।
जिन्दगी की मुश्किलों में, जो सदा चुभता रहा।।
मनोज कुमार शुक्ल *मनोज*