ढूंढ रहा हूँ इक चहरा अरसों से इन गलियों में..
होने लगी है गिनती मेरी अब पागल दीवानों में..
हर रोज़ दुआ करता हूँ खुदा से उनके लिए भी..
मजबूर हो कर साथ मेरा जिन्होंने छोड़ा है..
"उसकी" बदौलत खिले थे फूल ज़ख़्मो के..
कैसे करूँ शामिल "उसे" यूँ अनजानों में..
भर गए हर जख्म मेरे तो यह मालूम हुआ है..
छिपे हुए थे जख्म कईं "उनकी" मुस्कानो में..
दर दर भटक रहा हूँ इक उम्मीद लिए मै..
मिल जाए फिर "वह" इन अनजानों में..