हवा के झूले
तेज छिटकती बिजली
बादलों की गडगडाहट
हवा के झूले पर डोलती
वारिस की बूंदें आ बैठती है
चेहरे पर।
जलकणों से भीगता रोम रोम और सांसें
उतावली।
बार बार तेज चमक से चौंक
चुंधियाती आंखें मूंद जाती हैं बरबस,
मूंदी आंखों के अंदर डोलती एक कली,
बाहर आ गयी हैं।
वर्षों से यादों में ढंकी थी जो
जलबूंदों से सिंचित सजीव हो गयी हैं।
फैलने लगे हैं हाथ,
छूने को बिछरे हाथ।
भींगी रात की गहराई में खनकती
उमंगों भरी हंसी-
मचल जाता है बाहों में समाने को
बावली।
मुक्तेश्वर मुकेश