"मैं"
वक्त के आतंक से
आखिर क्यों डरा हूँ मैं
वक्त हर वक्त उठता है
अपने बेबुनियाद अस्त्र
शून्य हो जाते हैं
मेरे दिल के गहरे अर्थ।
लगता है अब निकलू बाहर
झूठी दहशतों के घेरे से
निकल कर खुले आसमान के नीचे
चलते हुए फिर सोचता हूँ
क्या कोई छू पायेगा मेरी आत्मा को
जो अपलक झेल लेती है
विराट सूर्य के तेज को
क्यो? और कब तक भागूँगा?
मैं खुद को बचाते
इस वक्त के आतंक से
यदि ऐसा ही रहा
तो वह दिन दूर नही
जब जीवन यह मेरा
मेरी ही आत्मा के खून से
लिखी एक किताब का पर्याय होगा
आखिर मैं क्यो डरा हूँ
इस वक्त के आतंक से।
किताब-"रेंगते केकड़े" कविता संग्रह से
लेखक-शिव भरोस तिवारी 'हमदर्द'