"जिन्दगी"
जिन्दगी ओ जिन्दगी
ईश्वर की छोरी
तुझको सच क्यों नहीं दीखता
तेरा यह कैसा हुश्न
क्यों नही इंसानी महबूब से
तू इश्क करती
क्यों नहीं तू उसकी बात सुनती
इन्सान की सांसें
धौकनी की तरह चलती हैं
कितने सुलगते हैं
उसके बदन में अंगारे
तू क्यों नहीं बुझाती है!
जिन्दगी ओ जिन्दगी
परमात्मा की गोरी
तुझको रोज कोई ढूढता है
तेरा मुह कही दीखता नही है
इन्सान तुझ पर अपना
पूरा जीवन निसार करता है
तू बाँहों को फैला कर चलती
वो दौड़ कर तुझको पाना चाहता
तेरे हुश्न को पीना चाहता है
तेरे नाज नखरों को
तुझसे चुरा कर अपनी
पेटी में सजाना चाहता है
तू फिसलती हो इस तरह
जैसे हाथों से
फिसलती है मझली
तू अपने हुश्न से अमृत
क्यों नहीं बरसाती है
तेरे जलवों से सुर्ख जहर
क्यों बरसता हैं
जिन्दगी ओ जिदगी
ईश्वर की छोरी
परमात्मा की गोरी!
किताब-"रेंगते केकड़े'कविता संग्रह से
रचना-शिव भरोस तिवारी 'हमदर्द'