पता है मेरे लीये दिन का सुहाना लम्हा कोनसा होता जब सचि बस मे सफर करती
क्यूँ?
क्यूंकी तब वोह मुझे अपनी पीठ से उतार के अपनी गोद मे बैठा देती तब मे उसके सबसे करीब होता उसकी आगोश मे होता , उसके कंधो पे बेठके दुनिया देखि थी मैंने , घूमक्कड़ है मेरी सचि ओर मैं उसका बस्ता!
यह जवानी है दीवानी का इलाहि गाना ओर उसके यह अंतरा मानो हमारे लिए ही बने हो “मेरा फलसफा कंधे पे मेरा बस्ता, जाना था जहा ले चला मुझे रास्ता…”
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